Saturday, August 27, 2011

मै भी एक गाँधी टोपी लाया हूँ ..


किताबों में पढ़ा था कि १९३० और १९४२ का आन्दोलन कैसे हुआ ? देखा नहीं था कि उस
समय लोगो के मन में देशभक्ति का कैसा जज्बा था ....अन्ना के आन्दोलन में जाने
के बाद पता चला लगा कि हम किसी क्रांति के युग में पहुँच गए है और हमारा जोश
दुगुना हो गया है ...नजदीक से अन्ना को देखने का मौका मिला .....मैंने गाँधी के
बारे में काफी कुछ पढ़ा है और गांधीवाद का प्रशंषक भी हूँ .....कल वाकई लगा कि
अन्ना के रूप में गाँधी को देख लिया....
ज़िन्दगी में मुझे इतनी ख़ुशी कभी नहीं मिली जितनी इस आन्दोलन से जुड़ कर मिली
...ऐसा लगा हमारा भी योगदान है ...और मज़बूत लोकपाल बिल आया तो हम भी कहेंगे कि
हमने इसके लिए आन्दोलन किया था ....हम तो भाई , १० बजे सुबह ही पहुँच गए
रामलीला मैदान ...और सबसे पहले आज के गाँधी को दूर से ही दर्शन किया और उसके
बाद देश भक्ति के गीतों के साथ सुर मिलाया ....लोग स्वेच्छा से आ रहे थे ..उनसे
बात कर ऐसा लगा कि वाकई वे भ्रष्टाचार से बहुत परेशान है ...और उनके अंदर कुछ
करने कि भावना भरी हुई है ...कुछ लोग कहते है कि वे केवल कैमरे के सामने आने के
लिए जा रहे है ...लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगा और फिर इस वजह से इतनी भीड़ कभी नहीं
जुट सकती .ऐसा वही लोग कह रहे है जिन्होंने शारीरिक रूप से वहां पर उपस्थित
नहीं हुए है ....
मुझे तो ऐसा लगा कि लोग अभिभूत है ...इस आन्दोलन से और कई लोग तो ऐसे थे जो
अपने आप को इस आन्दोलन से जुड़ कर धन्य मान रहे थे , उन्हीं लोगों में से मै भी
एक हूँ .....और यह भी याद आया कि वन्दे मातरम् कैसे लोगो में जोश भर देता है
....आज़ादी के समय में भी ऐसा ही हुआ होगा ....जो लोग इसे साम्प्रदायिकता कि नज़र
से देख रहे है उन्हें साम्प्रदायिकता का अर्थ भी नहीं मालूम .....वैसे मै सोचता
हूँ जन लोकपाल जैसे छोटे से मुद्दे के लिए अनशन करना पड़े ...इसका अर्थ है
हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली में कुछ खोट जरुर है .....मै भी एक गाँधी टोपी लाया
हूँ ...और जबतक जन लोकपाल बिल पास नहीं होता ,उसे पहन कर अपनी तरफ से लोगों
को बताने कि कोशिश करूँगा कि ये जन लोकपाल क्या है और किस प्रकार भर्ष्टाचार पर
अंकुश लगाया जा सकता है इसमें आम आदमी का क्या योगदान हो सकता है .........

Monday, August 15, 2011

ये स्टाइल तो यूनिक है.....

शम्मी कपूर कि यादगार फ़िल्में तुम सा नहीं देखा , दिल देके देखो , दिल तेरा
दीवाना , प्रफेसर , चाइना टाउन , राजकुमार ,कश्मीर की कली , जानवर , एन इवनिंग
इन पेरिस , तीसरी मंजिल , अंदाज आदि है.1968 में ' ब्रह्मचारी ' के लिए उन्हें
बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला , तो 1982 में 'विधाता ' के लिए बेस्ट
सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला.
जिंदादिली का नाम शम्मी कपूर .....मैंने बहुत पहले उन पर फिल्माया गया एक गाना
देखा 'दिल देके देखो '.... वे शरीर को तोड़ मरोड़ रहे थे ....मैंने सोचा पता
नहीं, कौन हीरो है और ऐसा क्यों कर रहा है ? ,ये बचपन कि बात है ...बाद में
महसूस हुआ कि उनका ये स्टाइल तो यूनिक है.फिर याहू स्टाइल देखा तो मुझे लगा यार
सच में ये अलग मिटटी का बना है .....जंगली तो मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक
है .....ब्रह्मचारी में उन्होंने वाकई बड़ी संजीदगी के साथ अभिनय कि है .रफ़ी
साहब कि आवाज़ अगर किसी एक एक्टर पर जमी तो वे सम्मी साहब ही थे.....लाल छड़ी
मैदान खड़ी गाने पर एक्ट कर पाना वाकई बहुत मुश्किल था . आज मुझे लगता है, कि
यह शम्मी कपूर का करिश्मा ही था ,जिसने गाने को इतना पॉपुलर बना दिया .....आज
जब वे नहीं है तो बहुत याद आ रही है कि याहू कहने वाला हमारे बीच से चला गया
.....

Friday, August 12, 2011

मिटटी .....


अपनी मिटटी के लिए तड़प 
 क्या होती है ?
 बिछड़ने के बाद जान पाए......

Thursday, August 11, 2011

हमारे अलावा इस ब्रह्मांड में कही और जीवन है ???

आकाश को देख रहा हूँ । कोई छोर नही दीखता । इतना फैला हुआ है ...... डर लग लगता है ।
सोचता हूँ । हमारे अलावा इस ब्रह्मांड में कही और जीवन है ???
अगर नही तो रोंगटे खड़े हो जाते है । इतने बड़े ब्रह्माण्ड में हम अकेले है !विश्वास नही होता ...लगता है , कोई तो जरुर होगा ।
फ़िर सोचता हूँ । आकाश को इतना फैला हुआ नही होना चाहिए । कुछ तो बंधन जरुरी है । भटकने का डर लगा रहता है ।

Sunday, August 7, 2011

कितने रंग !

कितने रंग !
आसमां में 
देखे नहीं 
इस जहाँ में

 मन बेचैन रहता
हर पल 
उन्हें  याद करता
मन नहीं लगता 
इस जहाँ में

रंग भरने की 
तमन्ना थी 
जीवन में 
अकेला देखता रहा 
और पूरा कारवां 
ओझल हो गया

क्या करूँ !
कहाँ जाऊं !
सच कहूँ !
अब मन नहीं लगता 
इस जहाँ में 

Saturday, August 6, 2011

''मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नही ''

कहीं पढ़ा था ''मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नही ।'' मै भी इस मानव यात्रा का एक पथिक हूँ । पथ की पहचान अभी करनी है । इर्ष्या से ग्रषित नही होना चाहता । गर्व से दूषित भी नही होना चाहता ।
क्या करू?.... अज्ञानता जाती ही नही ।
पाषाण की कठोर छाती को चिर कर अज्ञात पाताल से रस खीचना चाहता हूँ । निरंतर उर्ध्वगामी होना चाहता हूँ ।
क्या करू ?...संवेदनशीलता है ही नही ।